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Monday, 25 July 2011

यहां राधा नाम में समाया है जगत - बरसाना।



राधा को कृष्ण की अनन्यतम प्रियतमा कहा गया है। राधारानी के गांव बरसाने से कृष्ण का काफी लगाव रहा है। चूंकि राधारानी इसी गांव की हैं इसलिए इसे ब्रजमंडल में प्रमुख स्थान प्राप्त है।


भौगोलिक स्थिति एवं पौराणिक महत्व - बरसाना का पुराना नाम बृहत्सानु, ब्रहसानु या वृषभानुपुर था। यह नगर पहाड़ी पर बसा है जिसे साक्षात ब्रह्मा का स्वरूप माना जाता है। इसके चार शिखर ब्रह्मा के चार मुख माने जाते हैं।

बरसाने के दूसरी ओर भी एक पहाड़ी है। इन्हीं दो पहाडिय़ों के बीच में बसा है-बरसाना। यहीं श्यामसुंदर ने गोपियों को घेरा था।



मंदिर - बरसाने में यूं तो कई मंदिर हैं पर यहां का विशेष आकर्षण है-राधारानी मंदिर। इसकी सुंदरता देखते ही बनती है। यहां राधारानी की प्रतिमा बहुत सुंदर है।

मंदिर में ही वृषभानुजी की मूर्ति है जिसके एक ओर किशोरी सहारा दिए खड़ी हैं तो दूसरी ओर श्रीदामा खड़े हैं।



अन्य दर्शनीय स्थल - बरसाने में ही भानुपुष्कर नाम का सुंदर तालाब है जिसे वृषभानुजी ने बनवाया था। इसके किनारे एक जलमहल है जिसके दरवाजे सरोवर में जल के ऊपर खुले हुए हैं।

यहां पीरी पोखर नामक सरोवर बड़ा प्रसिद्ध है। कहते हैं कि राधा यहां स्नान करती थीं और शादी के बाद अपने पीले हाथ उन्होंने इसी सरोवर में धोए थे। इसी कारण इसका नाम पीरी पोखर पड़ा।



विशेष आयोजन - बरसाना राधारानी का गांव था इसलिए राधाष्टमी पर यहां काफी भीड़ होती है। अष्टमी से चतुर्दशी तक यहां बहुत बड़ा मेला लगता है।

कैसे पहुचें - बरसाना ब्रजमंडल में है। मथुरा से बरसाना लगभग 26 किलोमीटर दूर पड़ता है। यहां आने के लिए मथुरा से काफी साधन मिलते हैं

Monday, 18 July 2011

यहां सभी धर्म एक समान हैं - राजगृह।


भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है जहां सभी धर्म-संप्रदायों के लोग एक साथ रहते हुए अद्भुत भाईचारे का नमूना पेश करते हैं।

कई शहर ऐसे हैं जहां सभी धर्मों को मानने वालों के पवित्र स्थल हैं। ऐसा ही एक तीर्थ है- राजगृह।

राजगृह सनातनधर्मी हिन्दू, बौद्ध तथा जैन-तीनों का ही तीर्थ है। मगध की पुरानी राजधानी भी राजगृह ही थी। आज भी राजगृह पवित्र तीर्थ भूमि है और पुरुषोत्तम मास में तो वहां बहुत अधिक यात्री पहुंचते हैं।

हिन्दू तीर्थ - राजगृह बस्ती से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर ब्रह्मकुण्ड है। इस क्षेत्र को मार्कण्डेयक्षेत्र कहा जाता है। यहां सरस्वती नदी बहती है जिसे स्थानीय लोग प्राची सरस्वती कहते हैं।

यहां मार्कण्डेयकुण्ड, व्यासकुण्ड, गंगा-यमुनाकुण्ड, अनन्तकुण्ड, सप्तर्षिधारा और काशीधारा हैं। इनके आस-पास सैकड़ों देवी-देवताओं के मंदिर हैं।

सरस्वतीकुण्ड से आधा मील दूर सरस्वती को वैतरणी कहते हैं। यहां नदी के तट पर लोग पिण्डदान और गोदान करते हैं। यहां की विशेषता है कि यहां हर धर्म-समुदाय के लोग पिण्डदान करते हैं।

राजगृह में पांच पर्वत पवित्र माने जाते हैं। सभी तीर्थ इनके ऊपर या इनके मध्य में आ जाते हैं।

बौद्ध तीर्थ - राजगृह प्रधान बौद्ध तीर्थ है। तथागत वर्षा के चार महीने यहीं व्यतीत किया करते थे। यहीं नोज-भंडार में उनकी उपस्थिति में प्रथम बौद्ध-सभा हुई थी। कभी यहां बौद्धों के 18 विहार थे पर अब एक भी नहीं है।

जैन तीर्थ - जैन तीर्थ पंच पहाड़ों पर हैं। इक्कीसवें तीर्थंकर मुनि सुव्रतनाथ का जन्म यहीं हुआ था। यहीं उन्होंने तप किया था और नीलवन के चम्पकवृक्ष के नीचे केवल-ज्ञानी हुए थे।

मुनिराज धनदत्त और महावीर के कई गणधर भी इस स्थान से मोक्ष गये थे। यहीं नीलगुफा में क्षुल्लिका, पूतिगन्धा ने समाधि मरण किया था। जैनयात्री यहां के दर्शन करने जरूर आते हैं।

कैसे पहुचें - पूर्वी रेलवे पर पटना  से 35 किलोमीटर पूर्व बख्तियारपुर जंकशन है। वहां से राजगिरकुण्ड स्टेशन तक बिहार लाइट रेलवे जाती है। पटना और बख्तियारपुर से राजगृह के लिए बसें आसानी से मिल जाती हैं। बख्तियारपुर से राजगृह 50 किलोमीटर दूर है।

Friday, 15 July 2011

यहां सबको गले लगाते हैं शनिदेव - शनिश्चरा मंदिर।


शनि की गिनती क्रूर ग्रहों में होती है। सभी इसके बुरे प्रभाव से डरते हैं। ज्योतिष शास्त्र में शनि से मुक्ति के लिए शनि की पूजा-अर्चना करने के लिए कहा गया है। आज भारत में ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां शनि मंदिर न हो। पर कुछ शनि मंदिर इतने प्रभावशाली हैं कि वहां की गई पूजा का तुरंत फल मिलता है। ऐसा ही एक मंदिर है- शनिश्चरा मंदिर।

क्या है खास - यह शनि मंदिर विश्व के पुराने शनि मंदिरों में से एक है। लोक मान्यता है कि यह शनि पिण्ड महावीर हनुमान ने लंका से फेंका था जो यहां आकर गिरा। यहां शनि को तेल चढ़ाने के बाद उनसे गले मिलने की प्रथा है। जो भी यहां आता है वह बड़े प्यार से शनि महाराज से गले मिलता है और अपनी तकलीफ उनसे बांटता है। कहा जाता है कि ऐसा करने से शनि उस व्यक्ति की सारी तकलीफें अपने ऊपर ले लेते हैं।यह शनि पिण्ड चमत्कारिक है और इसकी पूजा करने से तुरंत फल मिलता है।

मंदिर के आसपास - शनिश्चरा मंदिर में शनि की शक्तियों का वास तो है ही, यहां की प्राकृतिक सुंदरता भी मन को खुश कर देती है। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली दिखाई देती है।

कैसे पहुंचें - शनिश्चरा मंदिर मध्य-प्रदेश के ऐतिहासिक शहर ग्वालियर में है। शनिश्चरा रेलवे स्टेशन ग्वालियर-भिण्ड रेलवे लाइन पर पड़ता है। ग्वालियर दिल्ली-मुंबई रेल खण्ड का प्रसिद्ध स्टेशन है। ग्वालियर से बसों व टैक्सियों से भी शनिश्चरा पहुंचा जा सकता है। देश के कई शहरों से ग्वालियर के लिए सीधी हवाई सेवा है। राजमाता विजयाराजे सिंधिया हवाई अड्डे से शनिश्चरा मंदिर सिर्फ 15 किलोमीटर दूर है। शनि अमावस्या पर यहां काफी भीड़ होती है। उस दिन स्पेशल ट्रेन और बसें मंदिर तक के लिए चलाई जाती हैं।

Tuesday, 12 July 2011

यहां समर्पण ही भक्ति है - तिरुपति बालाजी

भारत में तिरुपति मंदिर सबसे वैभवशाली मंदिरों में एक है। यह दक्षिण भारत में आंध्रप्रदेश के चित्तूर जिले में है। तिरुपति बालाजी मंदिर विश्व भर के हिंदुओं का प्रमुख वैष्णव तीर्थ है। यह पूरी दुनिया में हिंदु धर्म का सबसे अधिक धनी मंदिर माना जाता है। सात पहाडों का समूह शेषाचलम या वेंकटाचलम पर्वत श्रेणी की चोटी तिरुमाला पहाड पर तिरुपति मंदिर स्थित है । तिरुमाला पहाड पूरी दुनिया में दूसरी सबसे प्राचीन चट्टानें मानी जाती है। इसलिए इसे तिरुपति बालाजी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।

भगवान वेंकटेश को विष्णु का अवतार भी माना जाता है। भगवान विष्णु यहां वेंकटेश्वर, श्रीनिवास और बालाजी नाम से प्रसिद्ध है। हिंदू धर्मावलंबी तिरुपति बालाजी के दर्शन अपने जीवन का ऐसा महत्वपूर्ण पल मानते हैं, जो जीवन को सकारात्मक दिशा देता है। इस मंदिर की यात्रा कर श्रद्धालु स्वयं को धन्य मानते हैं। देश-विदेश के हिंदू भक्त और श्रद्धालुगण यहां आकर यथाशक्ति दान करते हैं, जो धन, हीरे, सोने-चांदी के आभूषणों के रुप में होता है। इस दान के पीछे भी प्राचीन मान्यताएं जुड़ी है। जिसके अनुसार भगवान से जो कुछ भी मांगा जाता है, वह कामना पूरी हो जाती है। इसलिए भक्तगण दिल खोलकर दान दान करते हैं। यहां पर होने वाला दान का मूल्य करोड़ों रुपयों का होता है। माना जाता है कि दान की यह परंपरा विजयनगर के राजा कृष्णदेवराय द्वारा इस मंदिर में सोने-चांदी-हीरे के आभुषण का दान दिया था। उसी समय से भक्तगण इस मंदिर को खूब दान देते आ रहे हैं। ऐसा माना जाता है कि अनेक लोग गलत तरीकों से कमाए धन का कुछ हिस्सा दान कर मन की शांति और संतुष्टि पाते हैं, जो वास्तव में पाप मुक्ति ही रुप है। श्रद्धालुओं की यह आस्था है कि तिरुपति बालाजी भी दु:खों, कष्टों का अंत कर देते हैं।

अनेक श्रद्धालु यहां आकर मनोकामनाओं को पूरा करने और सुख समृद्धि के लिए प्रार्थना करते हैं। मनोरथ पूरा होने पर भगवान की कृ पा मानकर श्रद्धा और आस्था के साथ श्रद्धालु अपने सिर के बालों को कटवाते हैं। यहां प्रतिदिन हजारों की संख्या में तीर्थयात्री मुण्डन कराते हैं। यहां मंदिरों में इन कटे बालों से बहुत राजस्व मिलता है। साथ ही इनके निर्यात से विदेशी मुद्रा भी प्राप्त होती है। मुण्डन करने वाले लोगों का स्थानीय भाषा में तमिल मोत्ताई कहा जाता है।

यह एक ऐसा तीर्थ है जहां पर लाखों की संख्या में तीर्थयात्री निरंतर आते हैं। हर समय इस मंदिर में श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।


पौराणिक महत्व - तिरुमाला तिरुपति मंदिर का हिन्दु धर्म के अनेक पुराणों में अलग-अलग महत्व बताया गया है। वाराह पुराण में वेंकटाचलम या तिरुमाला को आदि वराह क्षेत्र लिखा गया है। वायु पुराण में तिरुपति क्षेत्र को भगवान विष्णु का वैकुंठ के बाद दूसरा सबसे प्रिय निवास स्थान लिखा गया है। स्कंदपुराण में वर्णन है कि तिरुपति बालाजी का ध्यान मात्र करने से व्यक्ति स्वयं के साथ उसकी अनेक पीढिय़ों का कल्याण हो जाता है और व विष्णुलोक को पाता है। इसी प्रकार भविष्यपुराण में उल्लेख है कि भगवान विष्णु को शयनकाल में महर्षि भृगु ने आकर छाती पर पैर से आघात किया। इससे माता लक्ष्मी बहुत दु:खी होकर वहां से चली गई। तब भगवान विष्णु भी देवी लक्ष्मी के चले जाने से दु:खी होकर पापों का नाश करने वाले देवता के रुप में निवास करने लगे। ऐसी मान्यता है कि इसीलिए भगवान का नाम श्रीनिवास हुआ।

पुराणों की मान्यता है कि वेंकटम पर्वत वाहन गरुड द्वारा भूलोक में लाया गया भगवान विष्णु का क्रीड़ास्थल है। वैंकटम पर्वत शेषाचलम के नाम से भी जाना जाता है। शेषाचलम को शेषनाग के अवतार के रुप में देखा जाता है। इसके सात पर्वत शेषनाग के फन माने जाते है।

वराह पुराण के अनुसार तिरुमलाई में पवित्र पुष्करिणी नदी के तट पर भगवान विष्णु ने ही श्रीनिवास के रुप में अवतार लिया। ऐसी मान्यता है कि इस स्थान पर स्वयं ब्रहदेव भी रात्रि में मंदिर के पट बंद होने पर अन्य देवताओं के साथ भगवान वेंकटेश की पूजा करते हैं।

पूजा और आरती का समय - भगवान तिरुपति बालाजी की आरती प्रात: 7:30 से 12:00 बजे और सांय 6:00 बजे से रात्रि 10:30 के मध्य होती है।

पहुंच के संसाधन - वायु मार्ग - तिरुपति बालाजी मंदिर पहुंचने के लिए प्रमुख हवाई अड्डे हैं तिरुपति, हैदाराबाद, बैंगलोर और चेन्नई।

रेलमार्ग - रेलमार्ग से तिरुपति बालाजी मंदिर पहुंचने के लिए प्रमुख रेल्वे स्टेशन हैं - चेन्नई सेंट्रल, हैदराबाद, बैंगलोर, तिरुपति और कुर्नूल।

सड़क मार्ग - तिरुपति बालाजी सडक मार्ग से पहुंचने के लिए प्रमुख स्टेशन में बैंगलोर, चेन्नई, हैदराबाद और कुर्नुल प्रमुख हैं।

Saturday, 9 July 2011

यहां से कभी कोई खाली नहीं लौटा - श्री सिद्धिविनायक मंदिर।


भारत के महाराष्ट्र प्रदेश की राजधानी मुंबई न केवल देश की व्यावसायिक राजधानी मानी जाती है, बल्कि यह धर्म और परंपराओं की दृष्टि से भी प्रसिद्ध स्थान है। इसी कड़ी में यहां स्थित है हिन्दू धर्म के प्रथम पूज्य देवता भगवान  गणेश के भारत के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में एक - श्री सिद्धिविनायक  मंदिर। इस मंदिर से देशभर के धर्मावलंबियों की आस्था और श्रद्धा जुड़ी है। भगवान गणेश महाराष्ट्र  के सबसे लोकप्रिय और पूजनीय देवताओं में एक हैं।

भगवान श्री सिद्धिविनायक का मंदिर महाराष्ट्र के मुंबई शहर में दादर प्रभादेवी में स्थित है। यह मंदिर लगभग दो शताब्दी पुराना है। मराठी भाषियों में श्री सिद्धि विनायक नवासाचा गनपति के नाम से प्रसिद्ध है। जिसका अर्थ होता है प्रार्थना करने पर कामनापूर्ति करने वाले देवता। पुराण अनुसार भगवान श्री गणेश की दो पत्नियां है - सिद्धि और बुद्धि। भगवान गणेश की बाएं भाग में सिद्धि और दाएं भाग में बुद्धि का वास माना जाता है। यही कारण है कि श्री सिद्धिविनायक की आराधना और दर्शन से मन और बुद्धि का जागरण होता है। इस संदेश के साथ कि बुद्धि के सही उपयोग से ही किसी भी कार्य में सफ लता और सिद्धि मिलती है। अन्यथा सफ लता पाना कठिन हो जाता है।

आदौ पूज्यो विनायक:जिसका अर्थ है हर मंगल कार्य की शुरुआत श्री सिद्धिविनायक की आराधना से करना चाहिए। भगवान श्री गणेश को विघ्रहर्ता माना जाता है। श्री गणेश के आशीर्वाद और प्रसन्नता से हर शुभ कार्य की विघ्र और बाधा का नाश होता है। कार्य और मनोकामना सिद्ध करने वाले देवता होने के कारण ही वह सिद्धिविनायक कहलाते हैं। पुराणों में वर्णन है कि स्वयं त्रिदेव यानि ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने जगत की रचना, पालन और संहार की व्यवस्था बिना बाधा के पूरी करने के लिए श्री गणेश की आराधना की। तुलसी रामायण में भी श्रीराम-सीता के विवाह प्रसंग में उनके अयोध्या प्रवेश के समय श्री सिद्धिविनायक के ध्यान का वर्णन किया गया है।

शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने ही भगवान श्री गणेश को विघ्रकर्ता और विघ्रहर्ता दोनों का ही अधिष्ठाता देव बनाया है। जिसके अनुसार भगवान श्री गणेश की अप्रसन्नता से कार्य बाधित होते हैं किंतु उनकी पूजा और आराधना से श्री गणेश सभी विघ्र बाधाओं का नाश कर देते हैं। इसलिए धार्मिक और मंगल कार्यों में सफलता पाने के लिए श्री गणेश को सबसे पहले पूजा जाता है।

भारत के प्रमुख शहरों में शामिल होने से यहां आने के लिए हवाई, रेल और सड़क से आवागमन के साधन देश के हर कोने से उपलब्ध है।

Tuesday, 5 July 2011

यहां से शुरू हुआ धर्मचक्र प्रर्वतन - सारनाथ।


बौद्ध धर्म का इतिहास यूं तो ज्यादा पुराना नहीं है पर काफी तेजी से इसने दुनिया के देशों में अपनी शिक्षाओं द्वारा अपने अनुयायियों की संख्या में वृद्धि कर ली है। भगवान बुद्ध इस धर्म के प्रमुख प्रर्वतक हुए हैं।वैसे तो भारत में कई स्थान ऐसे हैं जो बौद्ध धर्म के तीर्थ बन चुके हैं पर एक ऐसा भी स्थान है जो बौद्ध धर्म में प्रमुख तीर्थ स्थल के रूप में प्रतिष्ठित है, वह है सारनाथ।

सारनाथ में ही भगवान बुद्ध ने अपना पहला उपदेश दिया था। यहीं से उन्होंने धर्मचक्र-प्रर्वतन प्रारम्भ किया था। सारनाथ में अशोक का चतुर्भुज सिंह स्तम्भ, भगवान बुद्ध का मंदिर (जो यहां का प्रधान मंदिर भी है), धमेखस्तूप, चौखण्डी स्तूप, सारनाथ का वस्तु संग्रहालय, नवीन विहार, मूलगन्धकुटी आदि दर्शनीय स्थल हैं।जैन ग्रंथों में सारनाथ को सिंहपुर कहा गया है।

जैनधर्मावलम्बी इसे अतिशय-क्षेत्र मानते हैं। श्रेयांसनाथ के यहां गर्भ, जन्म और तप- ये तीन कल्याणक हुए हैं। यहां के जैन मंदिरों में श्रेयांसनाथजी की प्रतिमा है। इस मंदिर के सामने ही अशोक स्तम्भ है।कभी सारनाथ बौद्ध धर्म का प्रधान केन्द्र था पर मुहम्मद गौरी ने हमला करके इसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। पर अब इतिहास के विद्वानों और बौद्ध धर्म के अनुयायियों का ध्यान इस ओर गया है और उन्होंने सारनाथ को वापस उसका पुराना स्वर्ण युग लौटाना शुरू कर दिया है।


कैसे पहुचें- सारनाथ पूर्वोत्तर रेलवे का स्टेशन है जो बनारस छावनी स्टेशन से 8 किलोमीटर, बनारस सिटी स्टेशन से 6 किलोमीटर और बनारस शहर से सड़क मार्ग द्वारा 10 किलोमीटर दूर है। बनारस से यहां जाने के लिए सवारी वाहन आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं।

Friday, 24 June 2011

यहां पत्थर जोडते हैं वासना को अध्यात्म से - खजूराहो मंदिर

खजूराहो मंदिर
खजुराहो, समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और विलक्षण ग्रामीण परिवेश के कारण भारत ही नहीं पूरी दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करता है। यह भारत के ह्दय स्थल कहे जाने वाले मध्यप्रदेश राज्य का प्रमुख सांस्कृतिक नगर है। यह मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित है। खजुराहो में स्थित मंदिर पूरे विश्व में आकर्षण का प्रमुख केन्द्र है। यहां स्थित सभी मंदिर पूरी दुनिया को भारत की ओर से प्रेम के अनूठे उपहार हैं, साथ ही एक विकसित और परिपक्व सभ्यता का प्रमाण है।

खजुराहो में स्थित मंदिरों का निर्माण काल ईसा के बाद ९५० से १०५० के मध्य का माना जाता है। इनका निर्माण चंदेल वंश के शासनकाल में हुआ। ऐसा माना जाता है कि इस क्षेत्र में किसी समय खजूर के पेड़ों की भरमार थी। इसलिए इस स्थान का नाम खजुराहो हुआ। मध्यकाल में यह मंदिर भारतीय वास्तुकला का प्रमुख केन्द्र माने जाते थे।

वास्तव में यहां ८५ मंदिरों का निर्माण किया गया था, किंतु कालान्तर में मात्र २२ ही शेष रह गए। खजुराहो में स्थित सभी मंदिरों का निर्माण लगभग १०० वर्षों की छोटी अवधि में होना रचनात्मकता का अद्भूत प्रमाण है। किंतु चंदेल वंश के पतन के बाद यह मंदिर उपेक्षित हुए और प्राकृतिक दुष्प्रभावों से जीर्ण-शीर्ण हुए। परंतु इस सदी में ही इन मंदिरों को फिर से खोजा गया, उनका संरक्षण किया गया और वास्तुकला के इस सुंदरतम पक्ष को दुनिया के सामने लाया गया। इन मंदिरों के भित्ति चित्र चंदेल वंश की जीवन शैली और काल को दर्शाने के साथ ही काम कला के उत्सवी पक्ष को प्रस्तुत करते है। मंदिरों पर निर्मित यह भित्ति चित्र चंदेल राजपूतों के असाधारण दर्शन और विकसित विचारों को ही प्रस्तुत नहीं करती वरन वास्तुकला के कलाकारों की कुशलता और विशेषज्ञता का सुंदर नमूना है। चंदेल शासकों द्वारा निर्मित यह मंदिर अपने काल की वास्तुकला शैली में सर्वश्रेष्ठ थे। इन मंदिरों में जीवन के चार पुरुषार्थों में एक काम कला के विभिन्न मुद्राओं को बहुत ही सुंदर तरीके से प्रतिमाओं के माध्यम से दर्शाया गया है।
प्राचीन मान्यताएं -
खजूराहो के मंदिरों का निर्माण करने वाले चंदेल शासकों को चंद्रवंशी माना जाता है यानि इस वंश की उत्पत्ति चंद्रदेव से माना जाता है। इस वंश की उत्पत्ति के पीछे किवदंती है कि एक ब्राह्मण की कन्या हेमवती को स्नान करते हुए देखकर चंद्रदेव उस पर मोहित हो गए। हेमवती और चंद्रदेव के मिलन से एक पुत्र चंद्रवर्मन का जन्म हुआ। जिसे मानव और देवता दोनों का अंश माना गया। किंतु बिना विवाह के संतान पैदा होने पर समाज से प्रताडि़त होकर हेमवती ने जंगल में शरण ली। जहां उसने पुत्र चन्दवर्मन के लिए माता और गुरु दोनों ही भूमिका का निर्वहन किया। चन्द्रवर्मन ने युवा होने पर चंदेल वंश की स्थापना की। चन्द्रवर्मन ने राजा बनने पर अपनी माता के उस सपने का पूरा किया, जिसके अनुसार ऐसे मंदिरों का निर्माण करना था जो मानव की सभी भावनाओं, छुपी इच्छाओं, वासनाओं और कामनाओं को उजागर करे। तब चंद्रवर्मन ने खजुराहों के पहले मंदिर का निर्माण किया और बाद में उनके उत्तराधिकारियों ने शेष मंदिरों का निर्माण किया।

एक अवधारणा यह भी है कि खजुराहो के मंदिरों में काम कला को प्रदर्शित करती मूर्तियां और मंदिरों के पीछे की विशेष उद्देश्य था। उस काल में हिन्दू मान्यताओं के अनुरुप बालक ब्रह्मचारी बनकर ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन करता था। तब इस अवस्था में उस बालक के लिए वयस्क होने पर गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों और लौकिक जीवन में अपनी भूमिका को जानने के लिए यह मूर्तियां और भित्तिचित्र ही श्रेष्ठ माध्यम थे।

खजुराहों में स्थित मंदिर में का निर्माण ऊंचे चबूतरे पर किया गया है। मंदिरों का निर्माण इस तरह से किया गया है, सभी सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित रहें। हर मंदिर में अद्र्धमंडप, मंडप और गर्भगृह बना है। सभी मंदिर तीन दिशाओं पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशा में समूहों में स्थित है। अनेक मंदिरों में गर्भगृह के बाहर तथा दीवारों पर मूर्तियों की पक्तियां हैं। जिनमें देवी-देवताओं की मूर्तियां, आलिंगन करते नर-नारी, नाग, शार्दूल और शाल-भंजिका पशु-पक्षियों की सुंदरतम पाषाण प्रतिमाएं उकेरी गई है। यह प्रतिमाएं मानव जीवन से जुडें सभी भावों आनंद, उमंग, वासना, दु:ख, नृत्य, संगीत और उनकी मुद्राओं को दर्शाती है। यह शिल्पकला का जीवंत उदाहरण है। कुशल शिल्पियों द्वारा पाषाण में उकेरी गई प्रतिमाओं में अप्सराओं, सुंदरियों को खजुराहों में निर्मित मंदिरों के प्राण माना जाता है। क्योंकि शिल्पियों ने कठोर पत्थरों में भी ऐसी मांसलता और सौंदर्य उभारा है कि देखने वालों की नजरें उन प्रतिमाओं पर टिक जाती हैं। जिनको देखने पर मन में कहीं भी अश्लील भाव पैदा नहीं होता, बल्कि यह तो कला, सौंदर्य और वासना के सुंदर और कोमल पक्ष को दर्शाती है। शिल्पक ारों ने पाषाण प्रतिमाओं के चेहरे पर शिल्प कला से ऐसे भाव पैदा किए कि यह पाषाण प्रतिमाएं होते हुए भी जीवंत प्रतीत होती हैं।

खजुराहो में मंदिर अद़भुत और मोहित करने वाली पाषाण प्रतिमाओं के केन्द्र होने के साथ ही देव स्थान भी है। इनमें कंडारिया मंदिर, विश्वनाथ मंदिर, लक्ष्मण मंदिर, चौंसठ योगिनी, चित्रगुप्त मंदिर, मतंगेश्वर मंदिर, चतुर्भूज मंदिर, पाश्र्वनाथ मंदिर और आदिनाथ मंदिर प्रमुख है। इस प्रकार यह मंदिर अध्यात्म अनुभव के साथ-साथ लौकिक जीवन से जुड़ा ज्ञान पाने का भी संगम स्थल है।
पहुंच के संसाधन -
वायु मार्ग - हवाई मार्ग से सीधे खजुराहो पहुंचा जा सकता है। खजुराहो का हवाई अड्डा देश के प्रमुख और बड़े शहरों दिल्ली, आगरा और वाराणसी से नियमित उड़ाने उपलब्ध हैं। खजुराहो, काठमाण्डू से भी सीधे वायु सेवाओं से जुड़ा है।

रेलमार्ग - खजुराहो से सबसे निकटतम रेल्वे स्टेशन महोबा, जो यहां से लगभग ६४ किलोमीटर दूर स्थित है और हरपालपुर रेल्वे स्टेशन, जिसकी खजुराहो से दूरी लगभग ९४ किलोमीटर है। दिल्ली,
वाराणसी, आगरा, चेन्नई, मुंबई और कोलकाता से आने वाले पर्यटकों के लिए खजुराहों पहुंचने के लिए सतना प्रमुख रेल्वे स्टेशन है। जो लगभग ११७ किलोमीटर दूर स्थित है।

सड़क मार्ग - खजुराहो से नियमित बस सेवाएं नजदीक शहरों महोबा, हरपालपुर, सतना, झांसी, ग्वालियर और आगरा से जोड़ती हैं।

Wednesday, 15 June 2011

आत्मा, परमात्मा और प्रकृति का संगम ओंकारेश्वर

भगवान शिव का यह चौथा ज्योतिर्लिंङ्ग है। मध्यप्रदेश के इंदौर संभाग के खंडवा जिले में ओंकारेश्वर और खरगोन जिले में महेश्वर है। नर्मदा नदी के किनारे एक पहाड़ी पर यह मंदिर स्थित है। यह पांच मंजिला मंदिर है। मंदिर में प्रवेश करते समय दाहिनी ओर ओंकारेश्वर तथा बाईं ओर पार्वती विराजमान हैं।
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कथा-शिवपुराण के अनुसार एक बार नारदजी ने विंध्य पर्वत के समक्ष मेरु पर्वत की प्रशंसा की। तब विंध्य ने शिव का पार्थिव लिंङ्ग बनाकर उनकी आराधना की। उसकी भक्ति से शिव प्रसन्न हुए और विंध्य की मनोकामना पूरी की। कहते हैं कि तभी से शिव वहां ओंकारलिंङ्ग के रूप में स्थापित हो गए। यह लिंङ्ग दो भागों में है। एक को ओंकारेश्वर और दूसरे को ममलेश्वर या परमेश्वर कहते हैं।ओंकारेश्वर जिस पहाड़ी पर है उसे मान्धाता पर्वत भी कहते हैं। कहा जाता है कि प्राचीनकाल में सूर्यवंश के राजा मान्धाता ने यहां शिव की आराधना की थी। ऐसा भी कहा जाता है कि भगवान श्रीराम की पत्नी देवी सीता भी यहां आई थीं और महर्षि वाल्मीकि का यहां आश्रम था। वर्तमान मंदिर पेशवा राजाओं ने बनवाया।

महत्व- ओंकारेश्वर के दर्शन का महत्व है। कहते हैं कि ज्योतिर्लिंङ्ग के दर्शन मात्र से व्यक्ति सभी कामनाएं पूर्ण होती है। इसका उल्लेख ग्रंथों में भी मिलता है- शंकर का चौथा अवतार ओंकारनाथ है। यह भी भक्तों के समस्त इच्छाएं पूरी करते हैं। और अंत में सद्गति प्रदान करते हैं।

कैसे पहुंचे- इंदौर, उज्जैन, धार, महू, खंडवा और महेश्वर आदि स्थानों से ओंकारेश्वर तक के लिए बस सेवा उपलब्ध है।

रेल सुविधा- मंदिर तक पहुंचने के लिए सबसे नजदीकी स्टेशन ओंकारेश्वर रोड है। यह 12 किमी की दूरी पर है। यहां से आप लोक परिवहन के साधनों से मंदिर तक जा सकते हैं।

वायु सेवा- ओंकारेश्वर के सबसे समीप का हवाई अड्डा इंदौर में है। यह दिल्ली, मुंबई, पूना, अहमदाबाद और भोपाल हवाई अड्डों से जुड़ा हुआ है। यहां से करीब 77 किमी की दूरी पर मंदिर है। कब जाएं- ओंकारेश्वर आप कभी भी जा सकते हैं, लेकिन जुलाई से मार्च तक का समय सर्वोत्तम है।

सलाह :- श्रावण-भादौ मास में शिव की भक्ति यात्रा का विशेष महत्व है । इन मासों में वर्षा ऋतु होती है । अत: मौसम के अनुकूल वस्त्र आदि की तैयारी के साथ यात्रा करना उचित है । यहां पर पैदल यात्रा के दौरान मार्ग में पत्थर, कंकड़ और बालू होती है, इनसे सावधानी रखना चाहिए ।

Wednesday, 25 May 2011

प्राचीन विरासत और नवीन जीवन शैली का अनूठा संगम है उज्जैन


मध्य प्रदेश का प्राचीन नगर उज्जैन देश के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। शिप्रा नदी के किनारे बसी यह पवित्र नगरी प्राचीन विरासत और नवीन जीवन शैली का अनूठा संगम है। यहाँ का महाकालेश्वर मंदिर भारत के 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक है। यहाँ हर 12 साल पर लगने वाला कुम्भ का मेला इसे और भी विस्तार देता है। धार्मिक महत्व के अलावा इस शहर का एतिहासिक महत्व भी है। मशहूर राजाओं विक्रमादित्य और अशोक ने यहाँ राज किया है। यहीं पर कालिदास ने अपनी हृदयस्पर्शी रचनाएं रची हैं। इन सबकी निशानियाँ आज भी यहाँ चप्पे-चप्पे पर मौजूद हैं।


महाकालेश्वर मंदिर
झील के किनारे बना यह मंदिर देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इस पांच मंजिला मंदिर का एक हिस्सा भूमिगत है। इस मंदिर की महत्ता का वर्णन अनेक पुरानों और संस्कृत साहित्य में भी मिलता है। यह मंदिर उज्जैन के लोगों के जीवन का अहम् हिस्सा है। आसमान को छूता मंदिर का शिखर उज्जैन की पहचान है। मन्दिरम एन स्थापित शिवलिंग के बारे में कहा जाता है की यह स्वयम्भू है और यह अपनी शक्ति स्वयं प्राप्त करता है।
महाकाल मंदिर के ऊपर ओंकारेश्वर शिव की मूर्ती राखी है। भगवान् गणेश, कार्तिकेय और देवी पार्वती की प्रतिमाएं पश्चिम, पूर्व और उत्तर में स्थापित हैं। दक्षिण में नंदी बैल की मूर्ती है। मंदिर की तीसरी मंजिल पर नागचंद्रेश्वर की प्रतिमा है। यह प्रतिमा केवल नागपंचमी के दिन की दर्शनों के लिए खोली जाती है। महाशिवरात्रि के दिन मंदिर के पास विशाल मेला लगता है।

गोपाल मंदिर
यह भव्य मंदिर मार्केट के चौराहे के बीच में स्थित है। इसका निर्माण महाराजा दौलत राव शिंदे की रानी बयाजीबाई शिंदे ने 19वीं शताब्दी में करवाया था। यह मंदिर मराठा स्थापत्य कला का सुन्दर नमूना है। मुख्य गर्भ गृह संगमरमर का बना है और इसके दरवाजों पर चांदी का पानी चढ़ा है। इसके दरवाजों को गजनी सोमनाथ मंदिर से निकाल कर अफगानिस्तान ले गया था। वहां से अहमद शाह अब्दाली उन्हें लाहौर ले आया। बाद में महाराज सिंधिया ने इन्हें खोजा और यहाँ स्थापित किया।

पीर मत्स्येन्द्रनाथ
शिप्रा नदी के किनारे भृर्तहरी गुफाओं और गढ़कालिका मंदिर के पास स्थित पीर मत्स्येन्द्रनाथ बहुत ही आकर्षक स्थल है। यह तीर्थ स्थल नाथ सम्प्रदान के पवित्र गुरू मत्स्येन्द्रनाथ को समर्पित है। मुस्लिम और नाथ अनुयायी अपने संतों को पीर कहते हैं और दोनों की मतावलंबी इस स्थान को पवित्र मानते हैं। यहाँ आसपास की स्थित कई चीजें 6वीं और 7वीं शताब्दी के आसपास की हैं।

भर्तहरी गुफाएं
यह स्थान गढ़कालिका मंदिर के पास स्थित है। इन गुफाओं के बारे में कहा जाता है की यहीं पर ऋषि भृर्तहरी रहा करते थे और तपस्या करते थे। भृर्तहरी महान विद्वान् और कवी थे। उनके द्वारा रचित श्रृंगारशतक, वैराग्यशतक और नीतिशतक बहुत प्रसिद्ध हैं। इनका संस्कृत साहित्य में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।

चिंतामण गणेशजी का मंदिर
यह मंदिर शिप्रा नदी के किनारे बना हुआ है। माना जाता है की इस मंदिर में स्थापित गणेश जी की प्रतिमा स्वयंभू है। उनके दोनों और उनकी पत्नियां रिद्धि और सिद्धि विराजमान हैं। मुख्य प्रार्थना कक्ष के बारीकी से तराशे गए खम्भे परमार काल के समय के हैं। यहाँ गणेश को चिंताहरण गणेश कहा जाता है। बड़ी संख्या में भक्त यहाँ अपनी चिंताओं के निवारण के लिए आते हैं।

हरीसिद्धि मंदिर
उज्जैन के प्राचीन मंदिरों में इस मंदिर का विशेष स्थान है। यहाँ महालक्ष्मी और महासरस्वती की मूर्तियों के बीच में देवी अन्न्पूर्ण की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर के अन्दर श्री यंत्र भी देखाजा सकता है। शिव पुराण के अनुसार जब शिव सती की मृत देह को कैलाश ले जा रहे थे तब सती की कोहनी यहाँ गिरी थी। स्कंध पुराण में भी इस स्थान का उल्लेख मिलता है। मराठों के शासन काल के दौरान इस मंदिर का पुननिर्माण किया गया था। दो खम्भों के ऊपर लगी लालटेन मराठा कला की निशानी हैं। ये लालटेन नवरात्रि के मौके पर जलाई जाती हैं। उस दौरान इस मंदिर की रौनक देखते ही बनती है।


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उजैन के अन्य दर्शनीय स्थानों में यहाँ की वेध शाला भी शामिल है। इस वेध शाळा का निर्माण महाराजा सवाई जय सिंह ने 1719 में करवाया था। उस दौरान वे उज्जैनके गवर्नर थे। योद्धा और राजनीतिग्य होने के साथ-साथ वे महा विद्वान् भी थे। उनकी खगोल विज्ञान में बहुत रुचि थी। उन्होंने पारसी और अरबी भाषा में लिखी खगोलशास्त्र की पुस्तकें भी पढ़ें थीं। यह वेध शाळा उनकी विद्वत्ता का प्रतीक है। राजा जय सिंह ने ऐसी ही वेधशालाएं दिल्ली, जयपुर, मथुरा, वाराणसी में भी बनवाई थीं। उज्जैन की वेध शाळा में आज भी खगोलीय पिंडों की गणना की जाती है।

कैसे पहुंचें
मध्य प्रदेश का महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल होने के कारण उज्जैन राजधानी भोपाल और अन्य दूसरे शहरों से सीधे जुड़ा है।
वायु मार्ग:-  इंदौर का देवी अहिल्या बाई होकर हवाई अड्डा इस शहर का सबसे नजदीकी एयरपोर्ट है। दिल्ली, ग्वालियर, भोपाल और मुम्बई से यहाँ के लिए नियमित उड़ानें हैं।
रेल मार्ग:- उज्जैन जंक्शन पश्चिम रेलवे का एक महत्वपूर्ण स्टेशन है। यह सुपरफास्ट और मेल ट्रेनों के जरिये देश के सभी बड़े शहरों से सीधा जुड़ा है।
सड़क मार्ग:- उज्जैन के लिए इंदौर (55 किलोमीटर), भोपाल (195 किलोमीटर), ग्वालियर (450 किलोमीटर), और अहमदाबाद (444 किलोमीटर) से नियमित बस सेवाएं उपलब्ध हैं।
इंदौर से यहाँ वाल्वो बस की आरामदायक सेवा 850 रूपये में उपलब्ध है।


Tuesday, 17 May 2011

यात्रा श्री अमरनाथ धाम


अमरनाथ यात्रा से यज्ञ के समान फल मिलता है तथा पैदल यात्रा करने से परम तप के समान फल सिद्धि प्राप्त होती है। इस यात्रा में देश व विदेश से सैकड़ों भक्तजन आते हैं। यह यात्रा श्रावण मास में ही आयोजित की जाती है।




अमरनाथ समुद्र तल से १५००० फीट की ऊंचाई पर दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग जिले में स्थित है।
विश्व के सबसे ऊंचे रणक्षेत्र सियाचिन ग्लेशियर का मार्ग भी यहीं करीब से होकर जाता है। माना जाता है कि अमरनाथ की पवित्र गुफा की खोज बूटा मलिक नामक एक मुस्लिम गडरिए ने की थी। तभी से उसके परिवार के लोग यहां की पूजा-पाठ में अपना सहयोग प्रदान करते हैं। आज भी गुफा में स्थित मंदिर के चढ़ावे का एक भाग उसके परिवार को दिया जाता है, जो कि अपने आप में हिंदू-मुस्लिम भाईचारे का एक जीवंत उदाहरण है।
श्री अमरनाथ जी की यात्रा का मुख्य मार्ग जम्मू तवी से शुरू होता है। यात्रियों का काफिला पूर्ण सुरक्षा व्यवस्था के साथ पहलगांव के लिए रवाना होता है।

पहलगांव समुद्रतल से ७२०० फीट की ऊंचाई पर लिद्‌दर नदी के किनारे स्थित है। यहां से पवित्र गुफा ४८ किलोमीटर पर है।

चंदनवाड़ी पहलगांव से १६ किमी दूर है। इसकी ऊंचाई समुद्रतल से ८५०० फीट है। यह दूरी पैदल छह घंटे में तथा कार से एक घंटे में तय होती है। यात्रा में भंडारे का आयोजन यहीं से प्रारंभ होता है। यहां नीलगंगा नामक एक नदी बहती है, जिसके संबंध में प्रचलित है कि जब एक समय भगवान शिव का मुख पार्वतीजी की आंख के काजल से काला हो गया, तब शिवजी ने अपना मुख इस नदी में धोया, जिस कारण काजल की कालिमा नदी की संपूर्ण जलराशि में फैल गई। तभी से इसका नाम नील गंगा हो गया।

पिस्सुटॉप चंदनवाड़ी से तीन किमी दूर ११,५०० फीट की ऊंचाई पर स्थित है। इस दूरी को तय करने में दो-तीन घंटे का समय लगता है। प्राचीन काल में यहां देवताओं द्वारा राक्षसों की हडि्‌डयां पीसे जाने के कारण इस जगह का नाम पिस्सूघाटी पड़ा। यहीं से तीर्थ गुफा की जटिल चढ़ाई शुरू होती है, जो कि अतिदुर्गम, खड़ी, पथरीली तथा सर्पाकार है। यहां ऑक्सीजन की कमी महसूस होती है। शेषनाथ, पिस्सूटॉप से दस किमी दूर १२५०० फीट की ऊंचाई पर स्थित है। इस दूरी को तय करने में पांच से छह घंटे का समय लगता है। यहां एक भंयकर राक्षस निवास करता था, जिसका वध भगवान शेषनाग ने श्रीविष्णु के आग्रह पर किया था। इसलिए इस जगह का नाम शेषनाग हो गया। यह स्थान लिद्‌दर नदी का उद्‌गम स्थल है तथा मन को मोह लेने वाला है। यहां एक सुंदर झील है।

शेषनाग से महागुनस की दूरी तीन किमी है, जिसे तय करने में दो से तीन घंटे लगते हैं। यह स्थान समुद्रतल से १४८०० फीट की ऊंचाई पर है। महागुनस पर्वत की चढ़ाई खड़ी व सीधी है।

महागुनस से पोशपत्री की दूरी लगभग दो किमी है, जिसे तय करने में एक से दो घंटे लगते हैं। यह स्थान १४७०० फीट की ऊंचाई पर है।

पोशपत्री से पंचतरणी की दूरी आठ किमी है। यह स्थान ११५०० फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह स्थान पांच नदियों का संगम स्थल है। कहा जाता है कि एक बार तांडव नृत्य करते हुए भगवान शिव की जटाएं खुल गईं, जिसमें से पांच धाराएं गंगा की बह निकलीं। इस कारण इस जगह का नाम पंचतरणी हो गया। इन नदियों में स्नान से प्रयाग, नैमिशारण्य व कुरुक्षेत्र आदि के तीर्थ के समान फल मिलता है।

पवित्र गुफा पंचतरणी से छह किमी दूर स्थित है। समुद्रतल से इसकी ऊंचाई १३५०० फीट है। इस यात्रा का तीन किमी का मार्ग बर्फ से ढका है। इसके उपरांत हिम नदी को पार करके मुख्य गुफा के दर्शन होते हैं। यह दूरी करीब तीन से चार घंटे में पूरी होती है। पवित्र गुफा १५० फीट लंबी और १०० फीट चौड़ी है। गुफा के पास अमरावती नामक नदी बहती है। कहा जाता है कि एक बार देवताओं को अमरता का वरदान देने के लिए शिवजी ने अपने मस्तक के चंद्र को सूक्ष्म शक्ति द्वारा निचोड़ा, जिससे एक अमृतधारा बह निकली, जो गुफा के समीप बहने वाली अमरावती नदी के रूप में परिणत हो गई। चंद्र को निचोड़ते समय अमृत की कुछ बूंदें शिवजी के शरीर पर पड़ीं और वहीं जम गईं। यही जमी हुई बूंदें पवित्र गुफा में शिवलिंग के रूप में स्थित है।

गुफा में स्थित पार्वतीपीठ ५१ शक्तिपीठों में से एक है। कहा जाता है कि यहां भगवती सती का कंठ गिरा था। पास ही एक स्थान से पवित्र सफेद भस्म निकलती है, जो कि अमृतबिंदु की बहिन है। भक्तजन इसे अपने शरीर पर लगाकर भगवान भोलेनाथ के दर्शन करते हैं। पवित्र गुफा के ऊपर श्रीराम कुंड है, जिसका जल गुफा में बूंद-बूंद टपकता रहता है। भक्तजन इसे प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं।

गुफा में शिवलिंग पूजन से मोक्ष प्राप्ति होती है तथा विा, सौंदर्य, स्वास्थ्य व दीर्घ आयु प्राप्त होती है। लिंग पुजन मात्र से शिव व पार्वती दोनों का पूजन होता है। लिंग के मूल भाग में ब्रह्मा, मध्य में श्री विष्णु और ऊपरी भाग में महादेव का निवास होता है।

ये बालाजी का दरबार है

बाल बिखेरे महिलाएं सिर घुमा रही हैं! उनके शरीर पर भारी पत्थर भी रखे हैं! उनकी चीत्कार और बचाओ-बचाओ की गुहार भी सुनाई पड़ रही है! एक कोने में महिलाएं कंडे जलाकर धुएं की तरफ अपना सिर करके झूम रही हैं! गलियारे में मैले कुचैले कपड़े पहने महिलाएं और पुरुष बेड़ियों और सांकलों में बंधे हैं! तेज आवाज में बड़बड़ा भी रहे हैं मानो वे गुस्से में हवा से बातें कर रहें हों! चिथड़ों में लिपटे कुछ ऐसे लोग भी पड़े हैं जिनके तन पर पूरी चमड़ी भी नहीं है! ये प्रेतराज सरकार का दरबार है।

राजस्थान के दौसा और करौली जिलों को बांटने वाली मेहंदीपुर पहाड़ियों के बीच घाटी में बालाजी मंदिर में यह दरबार हर रोज दो बजे से चार बजे तक लगता है।



यह मंदिर हिंडौन से दिल्ली-जयपुर हाइवे को जोड़ने वाली सड़क पर दौसा और करौली जिलों की सीमा पर स्थित है। सड़क मार्ग से बालाजी जाने के लिए दिल्ली से दो रास्ते हैं। एक रास्ता मथुरा, भरतपुर होकर जाता है। दूसरा रास्ता अलवर से होते हुए बांदीकुई से है। रेल से जाने के भी दो रास्ते हैं। एक है दिल्ली-मुंबई रेलमार्ग से। इस रास्ते से जाने पर हिंडौन या महावीर जी स्टेशन पर उतरकर लगभग एक घंटे का सड़क मार्ग तय करके बालाजी पहुंचा जा सकता है। दूसरा तरीका है कि दिल्ली जयपुर अहमदाबाद रेल मार्ग से जाकर बांदी कुंई स्टेशन पर उतरना होगा। बालाजी पहुंचने के लिए आगे का रास्ता सड़क से होकर जाता है। ठहरने के लिए यहां तमाम धर्मशालाएं हैं। वैसे यहां सुबह-सुबह पहुंचना अच्छा रहता है।

इस दौरान कचहरी की तरह यहां अर्जी लगाने वाले भक्तों को कष्ट देने और बाधा देने वाले भूत-प्रेतों की पेशी ली जाती है और अपराध के मुताबिक उन्हें दंड भी दिया जाता है।

वैसे तो बालाजी का एक सुविख्यात मंदिर दक्षिण भारत में है लेकिन वहां बालाजी के दर्शन राम के बाल रूप में होते हैं। जबकि मेहंदीपुर में हनुमान जी के बाल रूप को श्रद्धालु बालाजी कहते हैं। बालाजी में मुख्य रूप से तीन दरबार हैं। मंदिर में प्रवेश करते ही पहला बालाजी (हनुमान जी) का दरबार है, फिर दाईं तरफ दूसरा कोतवाल कप्तान यानी भैरव जी का दरबार और फिर सीढ़ियों से ऊपर जाकर तीसरा प्रेतराज सरकार का दरबार है। मान्यता है कि अब से करीब १००० वर्ष पूर्व तीनों देव यहां प्रकट हुए थे। बालाजी, कोतवाल कप्तान और प्रेतराज सरकार की मूर्तियों को अलग से किसी मूर्तिकार ने गढ़कर नहीं बनाया है बल्कि वे पर्वत का एक हिस्सा हैं। समूचा पर्वत मानो उनका 'कनक भूधराकार' शरीर है। प्रकट होने से अब तक १२ महंत बालाजी की सेवा में रहे हैं। वर्तमान मंदिर महंत गणेशपुरी के सेवाकाल में बना था।

बालाजी महाराज की जय! कोतवाल कप्तान की जय! प्रेतराज सरकार की जय! इन जयकारों के साथ हर रोज सुबह साढ़े छह बजे मंदिर में बालाजी की आरती होती है। उस समय मंदिर परिसर ही नहीं बल्कि बाहर सड़क पर भी भारी भीड़ जमा होती है। बालाजी की आरती संपन्न होने पर सभी श्रद्धालुओं पर पुजारी महाराज छींटे देते हैं। फिर धीरे-धीरे भीड़ छंटती है और केवल दरख्वास्त लगाने वाले लोग ही पंक्ति में खड़े रहते हैं।

अर्जी दिन में केवल आठ बजे से ग्यारह बजे तक लगाई जाती है।
पंक्ति में जितने लोग उतनी ही शिकायतें और परेशानियां हैं। किसी का व्यापार इन दिनों मंदा पड़ा है तो किसी की नौकरी छूट गई है, किसी का काम बनते-बनते बिगड़ जाता है तो कोई तमाम मेहनत के बाद भी परीक्षा में सफल नहीं हो रहा है। कोई अपने परिवार में किसी खास के बिगड़े व्यवहार से परेशान है तो किसी को मानसिक परेशानी है या किसी का प्रिय असाध्य बीमारी से गुजर रहा है, किसी की शादी नहीं हो रही है तो कोई शादी के वर्षों बाद भी संतानहीन है। अपनी हर मुश्किल और बाधाओं को दूर करवाने के लिए लोग इस दरबार में हाजिर हैं और अपनी बारी की प्रतीक्षा में हैं।

दरख्वास्त सवा दो रुपये में लगती है और अर्जी सवा इक्यासी रुपये में। दरअसल यह दरबार में चढ़ाने का एक प्रसाद है। दरख्वास्त में एक दोने में कुछ लड्‌डू और बताशे होते हैं जबकि अर्जी में पके चावल और उड़द की दाल होती है, इसे एल्युमिनियम के बर्तन में चढ़ाया जाता है। अर्जी और दरख्वास्त बाजार की किसी भी दुकान से खरीदा जा सकता है। सभी दुकानों में इनकी कीमत समान है। दरख्वास्त छोटी-मोटी परेशानियों और बाधाओं को दूर करने के लिए लगाई जाती है और अर्जी असाधारण व्याधि और कष्टों को दूर करने के लिए लगाई जाती है। यूं समझिए कि यह बालाजी के मंदिर में किसी मन्नत या मनौती करने का एक वैधानिक तरीका है। बालाजी में रिवाज है कि वहां पहुंचते ही सबसे पहले एक दरखास्त इस बात की लगाई जाती है कि हम आपके दरबार में हाजिर हुए हैं। उसके बाद अगली तमाम दरख्वास्त अनेक छोटी-मोटी परेशानियों और मन की मुराद पूरी करने के लिए लगाई जाती हैं। लौटने से पहले एक दरख्वास्त इस बात की लगाई जाती है कि आप हमारी सभी दरख्वास्त या अर्जी स्वीकार करें और हम यहां से अपने घर बिना बाधा के सकुशल पहुंचे। वैसे विशेष परिस्थिति में अलग तरह का प्रसाद चढ़ाया जाता है। इसके लिए यहां के महंतजी से परामर्श लेना पड़ता है।

एक बात और, लोग यहां कोतवाल कप्तान और प्रेतराज सरकार को चढ़ाए प्रसाद को स्वयं नहीं लेते हैं वरन मंदिर के पिछवाड़े के हरिजन बाड़े में जानवरों को डाल देते हैं। हरिजन बाड़े से सटी पहाड़ी पर सैकड़ों ईंटों और पत्थरों के बने घरौंदे यानी छोटे-छोटे घर बने हैं। ये उन लोगों ने बनवाए हैं जिन पर अपने ही पूर्वजों की कोई भूत-प्रेत बाधा थी। जब वे उनसे मुक्त हो गए तो उन्हें बालाजी की शरण में ही स्थान मिल गया।