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Wednesday, 25 May 2011

प्राचीन विरासत और नवीन जीवन शैली का अनूठा संगम है उज्जैन


मध्य प्रदेश का प्राचीन नगर उज्जैन देश के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। शिप्रा नदी के किनारे बसी यह पवित्र नगरी प्राचीन विरासत और नवीन जीवन शैली का अनूठा संगम है। यहाँ का महाकालेश्वर मंदिर भारत के 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक है। यहाँ हर 12 साल पर लगने वाला कुम्भ का मेला इसे और भी विस्तार देता है। धार्मिक महत्व के अलावा इस शहर का एतिहासिक महत्व भी है। मशहूर राजाओं विक्रमादित्य और अशोक ने यहाँ राज किया है। यहीं पर कालिदास ने अपनी हृदयस्पर्शी रचनाएं रची हैं। इन सबकी निशानियाँ आज भी यहाँ चप्पे-चप्पे पर मौजूद हैं।


महाकालेश्वर मंदिर
झील के किनारे बना यह मंदिर देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इस पांच मंजिला मंदिर का एक हिस्सा भूमिगत है। इस मंदिर की महत्ता का वर्णन अनेक पुरानों और संस्कृत साहित्य में भी मिलता है। यह मंदिर उज्जैन के लोगों के जीवन का अहम् हिस्सा है। आसमान को छूता मंदिर का शिखर उज्जैन की पहचान है। मन्दिरम एन स्थापित शिवलिंग के बारे में कहा जाता है की यह स्वयम्भू है और यह अपनी शक्ति स्वयं प्राप्त करता है।
महाकाल मंदिर के ऊपर ओंकारेश्वर शिव की मूर्ती राखी है। भगवान् गणेश, कार्तिकेय और देवी पार्वती की प्रतिमाएं पश्चिम, पूर्व और उत्तर में स्थापित हैं। दक्षिण में नंदी बैल की मूर्ती है। मंदिर की तीसरी मंजिल पर नागचंद्रेश्वर की प्रतिमा है। यह प्रतिमा केवल नागपंचमी के दिन की दर्शनों के लिए खोली जाती है। महाशिवरात्रि के दिन मंदिर के पास विशाल मेला लगता है।

गोपाल मंदिर
यह भव्य मंदिर मार्केट के चौराहे के बीच में स्थित है। इसका निर्माण महाराजा दौलत राव शिंदे की रानी बयाजीबाई शिंदे ने 19वीं शताब्दी में करवाया था। यह मंदिर मराठा स्थापत्य कला का सुन्दर नमूना है। मुख्य गर्भ गृह संगमरमर का बना है और इसके दरवाजों पर चांदी का पानी चढ़ा है। इसके दरवाजों को गजनी सोमनाथ मंदिर से निकाल कर अफगानिस्तान ले गया था। वहां से अहमद शाह अब्दाली उन्हें लाहौर ले आया। बाद में महाराज सिंधिया ने इन्हें खोजा और यहाँ स्थापित किया।

पीर मत्स्येन्द्रनाथ
शिप्रा नदी के किनारे भृर्तहरी गुफाओं और गढ़कालिका मंदिर के पास स्थित पीर मत्स्येन्द्रनाथ बहुत ही आकर्षक स्थल है। यह तीर्थ स्थल नाथ सम्प्रदान के पवित्र गुरू मत्स्येन्द्रनाथ को समर्पित है। मुस्लिम और नाथ अनुयायी अपने संतों को पीर कहते हैं और दोनों की मतावलंबी इस स्थान को पवित्र मानते हैं। यहाँ आसपास की स्थित कई चीजें 6वीं और 7वीं शताब्दी के आसपास की हैं।

भर्तहरी गुफाएं
यह स्थान गढ़कालिका मंदिर के पास स्थित है। इन गुफाओं के बारे में कहा जाता है की यहीं पर ऋषि भृर्तहरी रहा करते थे और तपस्या करते थे। भृर्तहरी महान विद्वान् और कवी थे। उनके द्वारा रचित श्रृंगारशतक, वैराग्यशतक और नीतिशतक बहुत प्रसिद्ध हैं। इनका संस्कृत साहित्य में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।

चिंतामण गणेशजी का मंदिर
यह मंदिर शिप्रा नदी के किनारे बना हुआ है। माना जाता है की इस मंदिर में स्थापित गणेश जी की प्रतिमा स्वयंभू है। उनके दोनों और उनकी पत्नियां रिद्धि और सिद्धि विराजमान हैं। मुख्य प्रार्थना कक्ष के बारीकी से तराशे गए खम्भे परमार काल के समय के हैं। यहाँ गणेश को चिंताहरण गणेश कहा जाता है। बड़ी संख्या में भक्त यहाँ अपनी चिंताओं के निवारण के लिए आते हैं।

हरीसिद्धि मंदिर
उज्जैन के प्राचीन मंदिरों में इस मंदिर का विशेष स्थान है। यहाँ महालक्ष्मी और महासरस्वती की मूर्तियों के बीच में देवी अन्न्पूर्ण की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर के अन्दर श्री यंत्र भी देखाजा सकता है। शिव पुराण के अनुसार जब शिव सती की मृत देह को कैलाश ले जा रहे थे तब सती की कोहनी यहाँ गिरी थी। स्कंध पुराण में भी इस स्थान का उल्लेख मिलता है। मराठों के शासन काल के दौरान इस मंदिर का पुननिर्माण किया गया था। दो खम्भों के ऊपर लगी लालटेन मराठा कला की निशानी हैं। ये लालटेन नवरात्रि के मौके पर जलाई जाती हैं। उस दौरान इस मंदिर की रौनक देखते ही बनती है।


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उजैन के अन्य दर्शनीय स्थानों में यहाँ की वेध शाला भी शामिल है। इस वेध शाळा का निर्माण महाराजा सवाई जय सिंह ने 1719 में करवाया था। उस दौरान वे उज्जैनके गवर्नर थे। योद्धा और राजनीतिग्य होने के साथ-साथ वे महा विद्वान् भी थे। उनकी खगोल विज्ञान में बहुत रुचि थी। उन्होंने पारसी और अरबी भाषा में लिखी खगोलशास्त्र की पुस्तकें भी पढ़ें थीं। यह वेध शाळा उनकी विद्वत्ता का प्रतीक है। राजा जय सिंह ने ऐसी ही वेधशालाएं दिल्ली, जयपुर, मथुरा, वाराणसी में भी बनवाई थीं। उज्जैन की वेध शाळा में आज भी खगोलीय पिंडों की गणना की जाती है।

कैसे पहुंचें
मध्य प्रदेश का महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल होने के कारण उज्जैन राजधानी भोपाल और अन्य दूसरे शहरों से सीधे जुड़ा है।
वायु मार्ग:-  इंदौर का देवी अहिल्या बाई होकर हवाई अड्डा इस शहर का सबसे नजदीकी एयरपोर्ट है। दिल्ली, ग्वालियर, भोपाल और मुम्बई से यहाँ के लिए नियमित उड़ानें हैं।
रेल मार्ग:- उज्जैन जंक्शन पश्चिम रेलवे का एक महत्वपूर्ण स्टेशन है। यह सुपरफास्ट और मेल ट्रेनों के जरिये देश के सभी बड़े शहरों से सीधा जुड़ा है।
सड़क मार्ग:- उज्जैन के लिए इंदौर (55 किलोमीटर), भोपाल (195 किलोमीटर), ग्वालियर (450 किलोमीटर), और अहमदाबाद (444 किलोमीटर) से नियमित बस सेवाएं उपलब्ध हैं।
इंदौर से यहाँ वाल्वो बस की आरामदायक सेवा 850 रूपये में उपलब्ध है।


Tuesday, 17 May 2011

यात्रा श्री अमरनाथ धाम


अमरनाथ यात्रा से यज्ञ के समान फल मिलता है तथा पैदल यात्रा करने से परम तप के समान फल सिद्धि प्राप्त होती है। इस यात्रा में देश व विदेश से सैकड़ों भक्तजन आते हैं। यह यात्रा श्रावण मास में ही आयोजित की जाती है।




अमरनाथ समुद्र तल से १५००० फीट की ऊंचाई पर दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग जिले में स्थित है।
विश्व के सबसे ऊंचे रणक्षेत्र सियाचिन ग्लेशियर का मार्ग भी यहीं करीब से होकर जाता है। माना जाता है कि अमरनाथ की पवित्र गुफा की खोज बूटा मलिक नामक एक मुस्लिम गडरिए ने की थी। तभी से उसके परिवार के लोग यहां की पूजा-पाठ में अपना सहयोग प्रदान करते हैं। आज भी गुफा में स्थित मंदिर के चढ़ावे का एक भाग उसके परिवार को दिया जाता है, जो कि अपने आप में हिंदू-मुस्लिम भाईचारे का एक जीवंत उदाहरण है।
श्री अमरनाथ जी की यात्रा का मुख्य मार्ग जम्मू तवी से शुरू होता है। यात्रियों का काफिला पूर्ण सुरक्षा व्यवस्था के साथ पहलगांव के लिए रवाना होता है।

पहलगांव समुद्रतल से ७२०० फीट की ऊंचाई पर लिद्‌दर नदी के किनारे स्थित है। यहां से पवित्र गुफा ४८ किलोमीटर पर है।

चंदनवाड़ी पहलगांव से १६ किमी दूर है। इसकी ऊंचाई समुद्रतल से ८५०० फीट है। यह दूरी पैदल छह घंटे में तथा कार से एक घंटे में तय होती है। यात्रा में भंडारे का आयोजन यहीं से प्रारंभ होता है। यहां नीलगंगा नामक एक नदी बहती है, जिसके संबंध में प्रचलित है कि जब एक समय भगवान शिव का मुख पार्वतीजी की आंख के काजल से काला हो गया, तब शिवजी ने अपना मुख इस नदी में धोया, जिस कारण काजल की कालिमा नदी की संपूर्ण जलराशि में फैल गई। तभी से इसका नाम नील गंगा हो गया।

पिस्सुटॉप चंदनवाड़ी से तीन किमी दूर ११,५०० फीट की ऊंचाई पर स्थित है। इस दूरी को तय करने में दो-तीन घंटे का समय लगता है। प्राचीन काल में यहां देवताओं द्वारा राक्षसों की हडि्‌डयां पीसे जाने के कारण इस जगह का नाम पिस्सूघाटी पड़ा। यहीं से तीर्थ गुफा की जटिल चढ़ाई शुरू होती है, जो कि अतिदुर्गम, खड़ी, पथरीली तथा सर्पाकार है। यहां ऑक्सीजन की कमी महसूस होती है। शेषनाथ, पिस्सूटॉप से दस किमी दूर १२५०० फीट की ऊंचाई पर स्थित है। इस दूरी को तय करने में पांच से छह घंटे का समय लगता है। यहां एक भंयकर राक्षस निवास करता था, जिसका वध भगवान शेषनाग ने श्रीविष्णु के आग्रह पर किया था। इसलिए इस जगह का नाम शेषनाग हो गया। यह स्थान लिद्‌दर नदी का उद्‌गम स्थल है तथा मन को मोह लेने वाला है। यहां एक सुंदर झील है।

शेषनाग से महागुनस की दूरी तीन किमी है, जिसे तय करने में दो से तीन घंटे लगते हैं। यह स्थान समुद्रतल से १४८०० फीट की ऊंचाई पर है। महागुनस पर्वत की चढ़ाई खड़ी व सीधी है।

महागुनस से पोशपत्री की दूरी लगभग दो किमी है, जिसे तय करने में एक से दो घंटे लगते हैं। यह स्थान १४७०० फीट की ऊंचाई पर है।

पोशपत्री से पंचतरणी की दूरी आठ किमी है। यह स्थान ११५०० फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह स्थान पांच नदियों का संगम स्थल है। कहा जाता है कि एक बार तांडव नृत्य करते हुए भगवान शिव की जटाएं खुल गईं, जिसमें से पांच धाराएं गंगा की बह निकलीं। इस कारण इस जगह का नाम पंचतरणी हो गया। इन नदियों में स्नान से प्रयाग, नैमिशारण्य व कुरुक्षेत्र आदि के तीर्थ के समान फल मिलता है।

पवित्र गुफा पंचतरणी से छह किमी दूर स्थित है। समुद्रतल से इसकी ऊंचाई १३५०० फीट है। इस यात्रा का तीन किमी का मार्ग बर्फ से ढका है। इसके उपरांत हिम नदी को पार करके मुख्य गुफा के दर्शन होते हैं। यह दूरी करीब तीन से चार घंटे में पूरी होती है। पवित्र गुफा १५० फीट लंबी और १०० फीट चौड़ी है। गुफा के पास अमरावती नामक नदी बहती है। कहा जाता है कि एक बार देवताओं को अमरता का वरदान देने के लिए शिवजी ने अपने मस्तक के चंद्र को सूक्ष्म शक्ति द्वारा निचोड़ा, जिससे एक अमृतधारा बह निकली, जो गुफा के समीप बहने वाली अमरावती नदी के रूप में परिणत हो गई। चंद्र को निचोड़ते समय अमृत की कुछ बूंदें शिवजी के शरीर पर पड़ीं और वहीं जम गईं। यही जमी हुई बूंदें पवित्र गुफा में शिवलिंग के रूप में स्थित है।

गुफा में स्थित पार्वतीपीठ ५१ शक्तिपीठों में से एक है। कहा जाता है कि यहां भगवती सती का कंठ गिरा था। पास ही एक स्थान से पवित्र सफेद भस्म निकलती है, जो कि अमृतबिंदु की बहिन है। भक्तजन इसे अपने शरीर पर लगाकर भगवान भोलेनाथ के दर्शन करते हैं। पवित्र गुफा के ऊपर श्रीराम कुंड है, जिसका जल गुफा में बूंद-बूंद टपकता रहता है। भक्तजन इसे प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं।

गुफा में शिवलिंग पूजन से मोक्ष प्राप्ति होती है तथा विा, सौंदर्य, स्वास्थ्य व दीर्घ आयु प्राप्त होती है। लिंग पुजन मात्र से शिव व पार्वती दोनों का पूजन होता है। लिंग के मूल भाग में ब्रह्मा, मध्य में श्री विष्णु और ऊपरी भाग में महादेव का निवास होता है।

ये बालाजी का दरबार है

बाल बिखेरे महिलाएं सिर घुमा रही हैं! उनके शरीर पर भारी पत्थर भी रखे हैं! उनकी चीत्कार और बचाओ-बचाओ की गुहार भी सुनाई पड़ रही है! एक कोने में महिलाएं कंडे जलाकर धुएं की तरफ अपना सिर करके झूम रही हैं! गलियारे में मैले कुचैले कपड़े पहने महिलाएं और पुरुष बेड़ियों और सांकलों में बंधे हैं! तेज आवाज में बड़बड़ा भी रहे हैं मानो वे गुस्से में हवा से बातें कर रहें हों! चिथड़ों में लिपटे कुछ ऐसे लोग भी पड़े हैं जिनके तन पर पूरी चमड़ी भी नहीं है! ये प्रेतराज सरकार का दरबार है।

राजस्थान के दौसा और करौली जिलों को बांटने वाली मेहंदीपुर पहाड़ियों के बीच घाटी में बालाजी मंदिर में यह दरबार हर रोज दो बजे से चार बजे तक लगता है।



यह मंदिर हिंडौन से दिल्ली-जयपुर हाइवे को जोड़ने वाली सड़क पर दौसा और करौली जिलों की सीमा पर स्थित है। सड़क मार्ग से बालाजी जाने के लिए दिल्ली से दो रास्ते हैं। एक रास्ता मथुरा, भरतपुर होकर जाता है। दूसरा रास्ता अलवर से होते हुए बांदीकुई से है। रेल से जाने के भी दो रास्ते हैं। एक है दिल्ली-मुंबई रेलमार्ग से। इस रास्ते से जाने पर हिंडौन या महावीर जी स्टेशन पर उतरकर लगभग एक घंटे का सड़क मार्ग तय करके बालाजी पहुंचा जा सकता है। दूसरा तरीका है कि दिल्ली जयपुर अहमदाबाद रेल मार्ग से जाकर बांदी कुंई स्टेशन पर उतरना होगा। बालाजी पहुंचने के लिए आगे का रास्ता सड़क से होकर जाता है। ठहरने के लिए यहां तमाम धर्मशालाएं हैं। वैसे यहां सुबह-सुबह पहुंचना अच्छा रहता है।

इस दौरान कचहरी की तरह यहां अर्जी लगाने वाले भक्तों को कष्ट देने और बाधा देने वाले भूत-प्रेतों की पेशी ली जाती है और अपराध के मुताबिक उन्हें दंड भी दिया जाता है।

वैसे तो बालाजी का एक सुविख्यात मंदिर दक्षिण भारत में है लेकिन वहां बालाजी के दर्शन राम के बाल रूप में होते हैं। जबकि मेहंदीपुर में हनुमान जी के बाल रूप को श्रद्धालु बालाजी कहते हैं। बालाजी में मुख्य रूप से तीन दरबार हैं। मंदिर में प्रवेश करते ही पहला बालाजी (हनुमान जी) का दरबार है, फिर दाईं तरफ दूसरा कोतवाल कप्तान यानी भैरव जी का दरबार और फिर सीढ़ियों से ऊपर जाकर तीसरा प्रेतराज सरकार का दरबार है। मान्यता है कि अब से करीब १००० वर्ष पूर्व तीनों देव यहां प्रकट हुए थे। बालाजी, कोतवाल कप्तान और प्रेतराज सरकार की मूर्तियों को अलग से किसी मूर्तिकार ने गढ़कर नहीं बनाया है बल्कि वे पर्वत का एक हिस्सा हैं। समूचा पर्वत मानो उनका 'कनक भूधराकार' शरीर है। प्रकट होने से अब तक १२ महंत बालाजी की सेवा में रहे हैं। वर्तमान मंदिर महंत गणेशपुरी के सेवाकाल में बना था।

बालाजी महाराज की जय! कोतवाल कप्तान की जय! प्रेतराज सरकार की जय! इन जयकारों के साथ हर रोज सुबह साढ़े छह बजे मंदिर में बालाजी की आरती होती है। उस समय मंदिर परिसर ही नहीं बल्कि बाहर सड़क पर भी भारी भीड़ जमा होती है। बालाजी की आरती संपन्न होने पर सभी श्रद्धालुओं पर पुजारी महाराज छींटे देते हैं। फिर धीरे-धीरे भीड़ छंटती है और केवल दरख्वास्त लगाने वाले लोग ही पंक्ति में खड़े रहते हैं।

अर्जी दिन में केवल आठ बजे से ग्यारह बजे तक लगाई जाती है।
पंक्ति में जितने लोग उतनी ही शिकायतें और परेशानियां हैं। किसी का व्यापार इन दिनों मंदा पड़ा है तो किसी की नौकरी छूट गई है, किसी का काम बनते-बनते बिगड़ जाता है तो कोई तमाम मेहनत के बाद भी परीक्षा में सफल नहीं हो रहा है। कोई अपने परिवार में किसी खास के बिगड़े व्यवहार से परेशान है तो किसी को मानसिक परेशानी है या किसी का प्रिय असाध्य बीमारी से गुजर रहा है, किसी की शादी नहीं हो रही है तो कोई शादी के वर्षों बाद भी संतानहीन है। अपनी हर मुश्किल और बाधाओं को दूर करवाने के लिए लोग इस दरबार में हाजिर हैं और अपनी बारी की प्रतीक्षा में हैं।

दरख्वास्त सवा दो रुपये में लगती है और अर्जी सवा इक्यासी रुपये में। दरअसल यह दरबार में चढ़ाने का एक प्रसाद है। दरख्वास्त में एक दोने में कुछ लड्‌डू और बताशे होते हैं जबकि अर्जी में पके चावल और उड़द की दाल होती है, इसे एल्युमिनियम के बर्तन में चढ़ाया जाता है। अर्जी और दरख्वास्त बाजार की किसी भी दुकान से खरीदा जा सकता है। सभी दुकानों में इनकी कीमत समान है। दरख्वास्त छोटी-मोटी परेशानियों और बाधाओं को दूर करने के लिए लगाई जाती है और अर्जी असाधारण व्याधि और कष्टों को दूर करने के लिए लगाई जाती है। यूं समझिए कि यह बालाजी के मंदिर में किसी मन्नत या मनौती करने का एक वैधानिक तरीका है। बालाजी में रिवाज है कि वहां पहुंचते ही सबसे पहले एक दरखास्त इस बात की लगाई जाती है कि हम आपके दरबार में हाजिर हुए हैं। उसके बाद अगली तमाम दरख्वास्त अनेक छोटी-मोटी परेशानियों और मन की मुराद पूरी करने के लिए लगाई जाती हैं। लौटने से पहले एक दरख्वास्त इस बात की लगाई जाती है कि आप हमारी सभी दरख्वास्त या अर्जी स्वीकार करें और हम यहां से अपने घर बिना बाधा के सकुशल पहुंचे। वैसे विशेष परिस्थिति में अलग तरह का प्रसाद चढ़ाया जाता है। इसके लिए यहां के महंतजी से परामर्श लेना पड़ता है।

एक बात और, लोग यहां कोतवाल कप्तान और प्रेतराज सरकार को चढ़ाए प्रसाद को स्वयं नहीं लेते हैं वरन मंदिर के पिछवाड़े के हरिजन बाड़े में जानवरों को डाल देते हैं। हरिजन बाड़े से सटी पहाड़ी पर सैकड़ों ईंटों और पत्थरों के बने घरौंदे यानी छोटे-छोटे घर बने हैं। ये उन लोगों ने बनवाए हैं जिन पर अपने ही पूर्वजों की कोई भूत-प्रेत बाधा थी। जब वे उनसे मुक्त हो गए तो उन्हें बालाजी की शरण में ही स्थान मिल गया।