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Friday, 24 June 2011

यहां पत्थर जोडते हैं वासना को अध्यात्म से - खजूराहो मंदिर

खजूराहो मंदिर
खजुराहो, समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और विलक्षण ग्रामीण परिवेश के कारण भारत ही नहीं पूरी दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करता है। यह भारत के ह्दय स्थल कहे जाने वाले मध्यप्रदेश राज्य का प्रमुख सांस्कृतिक नगर है। यह मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित है। खजुराहो में स्थित मंदिर पूरे विश्व में आकर्षण का प्रमुख केन्द्र है। यहां स्थित सभी मंदिर पूरी दुनिया को भारत की ओर से प्रेम के अनूठे उपहार हैं, साथ ही एक विकसित और परिपक्व सभ्यता का प्रमाण है।

खजुराहो में स्थित मंदिरों का निर्माण काल ईसा के बाद ९५० से १०५० के मध्य का माना जाता है। इनका निर्माण चंदेल वंश के शासनकाल में हुआ। ऐसा माना जाता है कि इस क्षेत्र में किसी समय खजूर के पेड़ों की भरमार थी। इसलिए इस स्थान का नाम खजुराहो हुआ। मध्यकाल में यह मंदिर भारतीय वास्तुकला का प्रमुख केन्द्र माने जाते थे।

वास्तव में यहां ८५ मंदिरों का निर्माण किया गया था, किंतु कालान्तर में मात्र २२ ही शेष रह गए। खजुराहो में स्थित सभी मंदिरों का निर्माण लगभग १०० वर्षों की छोटी अवधि में होना रचनात्मकता का अद्भूत प्रमाण है। किंतु चंदेल वंश के पतन के बाद यह मंदिर उपेक्षित हुए और प्राकृतिक दुष्प्रभावों से जीर्ण-शीर्ण हुए। परंतु इस सदी में ही इन मंदिरों को फिर से खोजा गया, उनका संरक्षण किया गया और वास्तुकला के इस सुंदरतम पक्ष को दुनिया के सामने लाया गया। इन मंदिरों के भित्ति चित्र चंदेल वंश की जीवन शैली और काल को दर्शाने के साथ ही काम कला के उत्सवी पक्ष को प्रस्तुत करते है। मंदिरों पर निर्मित यह भित्ति चित्र चंदेल राजपूतों के असाधारण दर्शन और विकसित विचारों को ही प्रस्तुत नहीं करती वरन वास्तुकला के कलाकारों की कुशलता और विशेषज्ञता का सुंदर नमूना है। चंदेल शासकों द्वारा निर्मित यह मंदिर अपने काल की वास्तुकला शैली में सर्वश्रेष्ठ थे। इन मंदिरों में जीवन के चार पुरुषार्थों में एक काम कला के विभिन्न मुद्राओं को बहुत ही सुंदर तरीके से प्रतिमाओं के माध्यम से दर्शाया गया है।
प्राचीन मान्यताएं -
खजूराहो के मंदिरों का निर्माण करने वाले चंदेल शासकों को चंद्रवंशी माना जाता है यानि इस वंश की उत्पत्ति चंद्रदेव से माना जाता है। इस वंश की उत्पत्ति के पीछे किवदंती है कि एक ब्राह्मण की कन्या हेमवती को स्नान करते हुए देखकर चंद्रदेव उस पर मोहित हो गए। हेमवती और चंद्रदेव के मिलन से एक पुत्र चंद्रवर्मन का जन्म हुआ। जिसे मानव और देवता दोनों का अंश माना गया। किंतु बिना विवाह के संतान पैदा होने पर समाज से प्रताडि़त होकर हेमवती ने जंगल में शरण ली। जहां उसने पुत्र चन्दवर्मन के लिए माता और गुरु दोनों ही भूमिका का निर्वहन किया। चन्द्रवर्मन ने युवा होने पर चंदेल वंश की स्थापना की। चन्द्रवर्मन ने राजा बनने पर अपनी माता के उस सपने का पूरा किया, जिसके अनुसार ऐसे मंदिरों का निर्माण करना था जो मानव की सभी भावनाओं, छुपी इच्छाओं, वासनाओं और कामनाओं को उजागर करे। तब चंद्रवर्मन ने खजुराहों के पहले मंदिर का निर्माण किया और बाद में उनके उत्तराधिकारियों ने शेष मंदिरों का निर्माण किया।

एक अवधारणा यह भी है कि खजुराहो के मंदिरों में काम कला को प्रदर्शित करती मूर्तियां और मंदिरों के पीछे की विशेष उद्देश्य था। उस काल में हिन्दू मान्यताओं के अनुरुप बालक ब्रह्मचारी बनकर ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन करता था। तब इस अवस्था में उस बालक के लिए वयस्क होने पर गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों और लौकिक जीवन में अपनी भूमिका को जानने के लिए यह मूर्तियां और भित्तिचित्र ही श्रेष्ठ माध्यम थे।

खजुराहों में स्थित मंदिर में का निर्माण ऊंचे चबूतरे पर किया गया है। मंदिरों का निर्माण इस तरह से किया गया है, सभी सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित रहें। हर मंदिर में अद्र्धमंडप, मंडप और गर्भगृह बना है। सभी मंदिर तीन दिशाओं पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशा में समूहों में स्थित है। अनेक मंदिरों में गर्भगृह के बाहर तथा दीवारों पर मूर्तियों की पक्तियां हैं। जिनमें देवी-देवताओं की मूर्तियां, आलिंगन करते नर-नारी, नाग, शार्दूल और शाल-भंजिका पशु-पक्षियों की सुंदरतम पाषाण प्रतिमाएं उकेरी गई है। यह प्रतिमाएं मानव जीवन से जुडें सभी भावों आनंद, उमंग, वासना, दु:ख, नृत्य, संगीत और उनकी मुद्राओं को दर्शाती है। यह शिल्पकला का जीवंत उदाहरण है। कुशल शिल्पियों द्वारा पाषाण में उकेरी गई प्रतिमाओं में अप्सराओं, सुंदरियों को खजुराहों में निर्मित मंदिरों के प्राण माना जाता है। क्योंकि शिल्पियों ने कठोर पत्थरों में भी ऐसी मांसलता और सौंदर्य उभारा है कि देखने वालों की नजरें उन प्रतिमाओं पर टिक जाती हैं। जिनको देखने पर मन में कहीं भी अश्लील भाव पैदा नहीं होता, बल्कि यह तो कला, सौंदर्य और वासना के सुंदर और कोमल पक्ष को दर्शाती है। शिल्पक ारों ने पाषाण प्रतिमाओं के चेहरे पर शिल्प कला से ऐसे भाव पैदा किए कि यह पाषाण प्रतिमाएं होते हुए भी जीवंत प्रतीत होती हैं।

खजुराहो में मंदिर अद़भुत और मोहित करने वाली पाषाण प्रतिमाओं के केन्द्र होने के साथ ही देव स्थान भी है। इनमें कंडारिया मंदिर, विश्वनाथ मंदिर, लक्ष्मण मंदिर, चौंसठ योगिनी, चित्रगुप्त मंदिर, मतंगेश्वर मंदिर, चतुर्भूज मंदिर, पाश्र्वनाथ मंदिर और आदिनाथ मंदिर प्रमुख है। इस प्रकार यह मंदिर अध्यात्म अनुभव के साथ-साथ लौकिक जीवन से जुड़ा ज्ञान पाने का भी संगम स्थल है।
पहुंच के संसाधन -
वायु मार्ग - हवाई मार्ग से सीधे खजुराहो पहुंचा जा सकता है। खजुराहो का हवाई अड्डा देश के प्रमुख और बड़े शहरों दिल्ली, आगरा और वाराणसी से नियमित उड़ाने उपलब्ध हैं। खजुराहो, काठमाण्डू से भी सीधे वायु सेवाओं से जुड़ा है।

रेलमार्ग - खजुराहो से सबसे निकटतम रेल्वे स्टेशन महोबा, जो यहां से लगभग ६४ किलोमीटर दूर स्थित है और हरपालपुर रेल्वे स्टेशन, जिसकी खजुराहो से दूरी लगभग ९४ किलोमीटर है। दिल्ली,
वाराणसी, आगरा, चेन्नई, मुंबई और कोलकाता से आने वाले पर्यटकों के लिए खजुराहों पहुंचने के लिए सतना प्रमुख रेल्वे स्टेशन है। जो लगभग ११७ किलोमीटर दूर स्थित है।

सड़क मार्ग - खजुराहो से नियमित बस सेवाएं नजदीक शहरों महोबा, हरपालपुर, सतना, झांसी, ग्वालियर और आगरा से जोड़ती हैं।

Wednesday, 15 June 2011

आत्मा, परमात्मा और प्रकृति का संगम ओंकारेश्वर

भगवान शिव का यह चौथा ज्योतिर्लिंङ्ग है। मध्यप्रदेश के इंदौर संभाग के खंडवा जिले में ओंकारेश्वर और खरगोन जिले में महेश्वर है। नर्मदा नदी के किनारे एक पहाड़ी पर यह मंदिर स्थित है। यह पांच मंजिला मंदिर है। मंदिर में प्रवेश करते समय दाहिनी ओर ओंकारेश्वर तथा बाईं ओर पार्वती विराजमान हैं।
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कथा-शिवपुराण के अनुसार एक बार नारदजी ने विंध्य पर्वत के समक्ष मेरु पर्वत की प्रशंसा की। तब विंध्य ने शिव का पार्थिव लिंङ्ग बनाकर उनकी आराधना की। उसकी भक्ति से शिव प्रसन्न हुए और विंध्य की मनोकामना पूरी की। कहते हैं कि तभी से शिव वहां ओंकारलिंङ्ग के रूप में स्थापित हो गए। यह लिंङ्ग दो भागों में है। एक को ओंकारेश्वर और दूसरे को ममलेश्वर या परमेश्वर कहते हैं।ओंकारेश्वर जिस पहाड़ी पर है उसे मान्धाता पर्वत भी कहते हैं। कहा जाता है कि प्राचीनकाल में सूर्यवंश के राजा मान्धाता ने यहां शिव की आराधना की थी। ऐसा भी कहा जाता है कि भगवान श्रीराम की पत्नी देवी सीता भी यहां आई थीं और महर्षि वाल्मीकि का यहां आश्रम था। वर्तमान मंदिर पेशवा राजाओं ने बनवाया।

महत्व- ओंकारेश्वर के दर्शन का महत्व है। कहते हैं कि ज्योतिर्लिंङ्ग के दर्शन मात्र से व्यक्ति सभी कामनाएं पूर्ण होती है। इसका उल्लेख ग्रंथों में भी मिलता है- शंकर का चौथा अवतार ओंकारनाथ है। यह भी भक्तों के समस्त इच्छाएं पूरी करते हैं। और अंत में सद्गति प्रदान करते हैं।

कैसे पहुंचे- इंदौर, उज्जैन, धार, महू, खंडवा और महेश्वर आदि स्थानों से ओंकारेश्वर तक के लिए बस सेवा उपलब्ध है।

रेल सुविधा- मंदिर तक पहुंचने के लिए सबसे नजदीकी स्टेशन ओंकारेश्वर रोड है। यह 12 किमी की दूरी पर है। यहां से आप लोक परिवहन के साधनों से मंदिर तक जा सकते हैं।

वायु सेवा- ओंकारेश्वर के सबसे समीप का हवाई अड्डा इंदौर में है। यह दिल्ली, मुंबई, पूना, अहमदाबाद और भोपाल हवाई अड्डों से जुड़ा हुआ है। यहां से करीब 77 किमी की दूरी पर मंदिर है। कब जाएं- ओंकारेश्वर आप कभी भी जा सकते हैं, लेकिन जुलाई से मार्च तक का समय सर्वोत्तम है।

सलाह :- श्रावण-भादौ मास में शिव की भक्ति यात्रा का विशेष महत्व है । इन मासों में वर्षा ऋतु होती है । अत: मौसम के अनुकूल वस्त्र आदि की तैयारी के साथ यात्रा करना उचित है । यहां पर पैदल यात्रा के दौरान मार्ग में पत्थर, कंकड़ और बालू होती है, इनसे सावधानी रखना चाहिए ।